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र॒यिर्न यः पि॑तृवि॒त्तो व॑यो॒धाः सु॒प्रणी॑तिश्चिकि॒तुषो॒ न शासुः॑। स्यो॒न॒शीरति॑थि॒र्न प्री॑णा॒नो होते॑व॒ सद्म॑ विध॒तो वि ता॑रीत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rayir na yaḥ pitṛvitto vayodhāḥ supraṇītiś cikituṣo na śāsuḥ | syonaśīr atithir na prīṇāno hoteva sadma vidhato vi tārīt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

र॒यिः। न। यः। पि॒तृ॒ऽवि॒त्तः। व॒यः॒ऽधाः। सु॒ऽप्रनी॑तिः। चि॒कि॒तुषः॑। न। शासुः॑। स्यो॒न॒ऽशीः। अति॑थिः। न। प्री॒णा॒नः। होता॑ऽइव। सद्म॑। वि॒ध॒तः। वि। ता॒री॒त् ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:73» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:5» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:12» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तिहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम (यः) जो विद्वान् (पितृवित्तः) पिता, पितामहादि अध्यापकों से प्रतीत विद्यायुक्त हुए (रयिः) धनसमूह के (न) समान (वयोधाः) जीवन को धारण करने (सुप्रणीतिः) उत्तम नीतियुक्त तथा (चिकितुषः) उत्तम विद्यावाले (शासुः) उपदेशक मनुष्य के (न) समान (स्योनशीः) विद्या, धर्म्म और पुरुषार्थयुक्त सुख में सोने (प्रीणानः) प्रसन्न तथा (अतिथिः) महाविद्वान् भ्रमण और उपदेश करनेवाले परोपकारी मनुष्य के (न) समान (विधतः) वा सब व्यवहारों को विधान करता है, उसके (होतेव) देने-लेनेवाले (सद्म) घर के तुल्य वर्त्तमान शरीर का (वि तारीत्) सेवन और उससे उपकार लेके सबको सुख देता है, उसका नित्य सेवन और उससे परोपकार कराया करो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विद्याधर्मानुष्ठान, विद्वानों का संग तथा उत्तमविचार के विना किसी मनुष्य को विद्या और सुशिक्षा का साक्षात्कार, पदार्थों का ज्ञान नहीं होता और निरन्तर भ्रमण करनेवाले अतिथि विद्वानों के उपदेश के विना कोई मनुष्य सन्देहरहित नहीं हो सकता, इससे सब मनुष्यों को अच्छा आचरण करना चाहिये ॥ ९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यूयं यः पितृवित्तो रयिर्न वयोधाः सुप्रणीतिश्चिकितुषः शासुर्न स्योनशीः प्रीणानोऽतिथिर्न विधतो होतेव सद्म वितारीत् तं नित्यं भजतोपकुरुत वा ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (रयिः) निधिसमूहः (न) इव (यः) विद्वान् (पितृवित्तः) पितृभ्योऽध्यापकेभ्यो वित्तः प्रतीतो विज्ञातः (वयोधाः) यो वयो जीवनं दधातीति (सुप्रणीतिः) शोभना प्रशस्ता नीतिर्यस्य सः (चिकितुषः) प्रशस्तविद्यस्य (न) इव (शासुः) शासनकर्त्तोपदेष्टा (स्योनशीः) यः स्योनेषु सुखेषु विद्याधर्मपुरुषार्थेषु शेत आस्ते सः (अतिथिः) महाविद्वान् भ्रमणशील उपदेष्टा परोपकारी मनुष्यः (न) इव (प्रीणानः) प्रसन्नः सत्यासत्यविज्ञापकः (होतेव) दाता यथा ग्रहीता (सद्म) गृहवद् वर्त्तमानं शरीरं वा (विधतः) यो विधानं करोति तस्य (वि) विशेषे (तारीत्) सुखानि ददाति ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्काराः। न खलु विद्याधर्मानुष्ठानविद्वत्सङ्गसुविचारैर्विना कस्यचिन्मनुष्यस्य विद्यासुशिक्षासाक्षात्कारो विद्युदादिपदार्थविज्ञानं च जायते, न किल नित्यं भ्रमणशीलानां विदुषामतिथीनामुपदेशेन विना कश्चिन्निर्भ्रमो भवितुं शक्नोति, तस्मादेतत् सदान्वाचरणीयम् ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात ईश्वर, अग्नी, विद्वान व सूर्याच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. विद्याधर्मानुष्ठान, विद्वानांचा संग व उत्तम विचाराशिवाय कोणत्याही माणसाला विद्या व सुशिक्षणाचा साक्षात्कार व पदार्थांचे ज्ञान होत नाही व निरंतर भ्रमण करणाऱ्या अतिथी विद्वानांच्या उपदेशाशिवाय कोणताही माणूस शंकारहित होऊ शकत नाही. त्यामुळे सर्व माणसांनी चांगले आचरण केले पाहिजे. ॥ १ ॥